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वक़्त से गुफ्तगू

एक वक्त था उस वक्त हम,
वक्त से गुफ्तगु कर लिये।
कुछ हमने कहा कुछ वक्त ने कहा,
इसमे ही कुछ वक्त बीत गये ॥

उस वक्त हमने वक्त से ,
एक प्रश्न भी पूछ लिया ।
आयेगा कब ऐसा वक्त जब ,
वक्त हमको देगा सलामीयाँ ॥

इस प्रश्न पर वक्त ने ,
थोड़ा सा वक्त लिया ।
कुछ वक्त में वक्त ने ,
फिर हमें उत्तर दिया ॥

"इस वक्त को दी गयी ,
हिदायतें बड़ी सक्त हैं ।
सही वक्त पर ये वक्त,
लाता सभी का वक्त है ॥"

वादे

एक दुसरे की लाश पर काश नहीं,
आखिरी सांस तक
पास रहना था हमें।

मेरा श्रृंगार हो तुझमें,
तेरा श्रृंगार हो मुझमें,
एक दूसरे का आइना बनना था हमें। ,

दिन का उजाला हो,
या हो अंधेरी रात,
एक दूसरे को आत्मसात करना था हमें ।

स्वयं का हाल भले ही बेहाल हो,
उस हाल में भी एक दुसरे का
ख्याल रखना था हमें।

आंखें मिचने से पहले,
मेरी आंखों से तुझे,
तेरी आंखों से मुझे,
सींचना था हमें।

फिर ना जानें क्यूं हम तुमसे,
और तुम हमसे रूठ गए,
तेरे मुझसे और मेरे तुझसे
किए सारे वादे टूट गए।

टीस

ज़िंदगी भर मै स्वयं से ही रुठा रहा ,
खुशी के पलों में भी मै टूटा रहा ।
आज मेरी कब्र में भी मुझे सब्र नहीं ,
जी चाहता है उठ जाऊं और फिर स्वयं से रूठ जाऊं ।

धीरे-धीरे ही सही पर मौत अच्छी लगने लगी है,
मृत्यु जीवन से सच्ची लगने लगी है।
क्यूं ना जीवन के कई फटे-पुराने भावों को
मृत्यु के सच के सुई-धागे से सी लूं?
कम से कम मृत्यु के ही कुछ पलों को खुशी से जी लूं ।